जीवन में सभी प्रकार के आभावों को दूर करने वाला यह जो अक्षय तृतीया का दिवस है, यह बहुत ही आलौकिक दिवस है। आज हम उसकी दिव्यता को जानेंगे। यह दिवस जीवन से सभी प्रकार के आभावों को दूर और सत्य का बोध कराने वाला। प्रकृति में जो चैतन्य तत्त्व है उससे एक तारतम्य स्थापित कर हम इस अनंतता को जीवन में उतार सकते हैं। इसके लिए हमें स्वयं को आंतरिक रूप से निर्मल और पवित्र करना आवश्यक है। क्यूंकि जब कोई पात्र अंदर से मलिन होगा तो जब तक अंदर की नकारात्मकता को समाप्त नहीं करेंगे तब तक अंदर की जो प्रचुरता है, बाहुल्य है उसे प्राप्त करने, आकर्षित करने में असमर्थ रहेंगे। ऐसी विकट परिस्थिति में इस प्रकार की साधना बहुत सहायक होती है।
अक्षय तृतीया का अर्थ यह है की तृतिया – वैदिक पंचांग के अनुसार तीसरा दिवस है और अक्षय का अर्थ है जो कभी समाप्त न हो। आज के दिन बहुत सी महत्त्वपूर्ण घटनाएं घटित हुई थीं। अतः आज की तिथि का विशेष महत्त्व है। ऋषि भागीरथ ने तपस्या द्वारा गंगा को आज ही के दिन धरती पर अवतरित किया था। जैन धर्म में भी इसकी बहुत सुन्दर व्याख्या है। भगवान ऋषभ देव जो तीर्थंकर थे जैन धर्म के उन्होंने भी आज ही के दिन राजा श्रेयांस की भीक्षा गन्ने के रस को पीकर उन्होंने अपना सौ वर्षों का उपवास खोला था। ऋषि परशुराम का जन्म दिन भी आज ही है। भगवान् शिव ने आज के दिन ही लक्ष्मी जी और कुबेर को धन, सम्पदा और वैभव का आधिपत्य दिया था। यह अक्षय तृतीया की महत्त्वपूर्ण बातें और यह सतयुग और त्रेता युग की बातें हैं। सतयुग का जो प्रथम प्रारम्भ हुआ यह अक्षय तृतीया के दिन से ही हुआ।
अब द्वापर युग आतें हैं। यहाँ भगवान् कृष्ण जो परम ज्ञान का भण्डार हैं और उनके साथ द्वापर युग में जो भी थे, उनकी जिस प्रकार से मदद कर सकते थे उन्होंने की। यह कथा उस समय की है जब पांडव अज्ञात वास में थे और द्युत क्रीड़ा में हार जाने के बाद वन की ओर अग्रसर थे । जब वो वन में थे तो दुर्वासा ऋषि अपनी ऋषि मंडली के साथ उनके यहाँ भोजन करने उपस्थित हो गए। दुर्वासा ऋषि अपने गुस्से और श्राप को लेकर बहुत प्रसिद्ध थे । ज़रा सी भी गलती हुई और वो श्राप दे देते थे। उनके श्राप से बचना बड़ा ही कठिन था। श्राप उनकी जिव्हा पर ही रहता था। जहां प्रसन्न हो जाएँ वहां समस्त सम्पदा, वैभव का भण्डार उपहार स्वरुप देदें। एक दिन दुर्योधन ने यह सोच कर चाल चली, की “चक्रवर्ती महाराज युधिष्ठिर इस समय वन में हैं और पूरी तरह से कंगाल हैं। तो यह बिलकुल ठीक समय है दुर्वासा ऋषि को पांडवों के पास भेजने के लिए। पांडवों के पास कोई साधन नहीं है उन्हें भोजन करने का और अपने अपमान से क्रोधित हो जाएंगे और फल स्वरुप दुर्वासा ऋषि उनको श्राप देदेंगे।”
युधिष्ठिर देखतें हैं कि दुर्वासा ऋषि अपने साधुयों की टोली के साथ वन में उन्हीं की तरफ आ रहे हैं। युधिष्ठिर समझ जाते हैं कि इसमें भी दुर्योधन की चाल है। और वो चाहता है कि हम यहाँ पर भी चैन से ना रह पाएं। ये ऐसे ऋषि हैं जिनके श्राप से हम कभी भी मुक्त हो ही नहीं पाएंगे। युधिष्ठिर जातें हैं और प्रणाम करते हैं तो दुर्वासा ऋषि कहते हैं, “मुझे तुम्हारे भाई दुर्योधन ने भेजा है और कहा है आप हम से तो मिल ही लिए हैं हमारे जो पांडव प्रिय भाई हैं उनके पास भी जाएँ और भोजन ग्रहण करें।”
यह सुनकर युधिष्ठिर बड़े ही चिंतित हो जाते हैं। दुर्वासा ऋषि कहते हैं की “हम स्नान के लिए जा रहे हैं तब तक तुम भोजन का इंतज़ाम करो।“ युधिष्ठिर अपनी कुटिआ में जातें हैं और देखतें हैं पांचाली के रसोईघर में भोजन है ही नहीं। वो एक ऐसा समय था जब कि उनको रोज़ भोजन की व्यवस्था करनी पड़ती थी और रोज़ उनके पास उतनी ही मात्रा में भोजन रहता था जितना वो ग्रहण कर सकते हैं। द्रौपदी भी बहुतु चिंता में आ जाती हैं और फिर वो कृष्ण को याद करतीं हैं और कहती हैं, ‘हे वासुदेव! हम ऐसी विकट परिस्थिति में हैं और इस वक्त तुम्हीं एकमात्र सहारा हो जो हमें बचा सकते हो। जैसे ही वो याद करतीं हैं कृष्ण समझ जाते हैं कि द्रौपदी जो मेरी सखी वो बहुत मुसीबत में है। तो तुरंत वहां पर आ जाते हैं और बिना कुछ बात करे, बिना कुछ पूंछे कहते हैं, “मुझे बहुत भूंख लगी है कुछ भोजन कराओ” द्रौपदी उस पात्र को सामने रख देती हैं जिसमे वो भोजन बनाती हैं। उस पात्र में मात्र एक चावल का दाना होता है और कृष्ण उसे ग्रहण कर लेते हैं। उनकी क्षुधा तृप्ति हो जाती है। भूंख मिट जाती है। यहाँ पर जब कृष्ण चावल का एक दाना ग्रहण करते हैं तो वहां पर उन साधुओं की तृप्ति हो जाती है। वो पात्र अक्षय पात्र हो जाता है। जिसमें भोजन कभी भी समाप्त न हो।
दूसरा जो द्वापर का किस्सा है वो सुदामा का है। सुदामा बहुत ही गरीब ब्राह्मण थे। एक दिन उनकी पत्नी सुशीला उनसे कहती हैं कि आपका मित्र तो द्वारिकाधीश है, सम्राट है, राजा है, और इसके बावजूद हम इतनी गरीबी और परेशानी में रहते हैं। आप एक बार उसके पास चले जाएँ तो हमारी जो यह दुर्दशा है इस जीवन की इससे हमें मुक्ति मिल सकती है। लेकिन झिझक वश सुदामा बहुत असमंजस की स्थिति में होता है और वो जा नहीं पता। पत्नी के बार बार कहने पर ये इच्छा प्रकट करता है कि मुझे अच्छा नहीं लगेगा जाने में और वह भी कुछ मांगने की उपेक्षा से। और कहीं ऐसा न हो की हमारी जो मित्रता है उसमे एक टूटन या दरार आ जाये। लेकिन वो कहती है कि आप जाइये। वो आपके बचपन के मित्र हैं और मुझे पूरा विश्वास है कि वो आपकी ज़रूर मदद करेंगे।
तो जब वो जाते हैं तो सुशीला उनको एक पोटली में चावल के दाने भर कर दे देती है। पहुँचते हैं द्वारका और कृष्ण उन्हें मिलते हैं तो बहुत संकोच में झिझक में हैं। एक दिन के पश्चात कृष्ण जब पूंछते हैं कि सुदामा भाभी ने मेरे लिए क्या भेजा? तो बहुत संकोच करते हुए कहते हैं की यह एक पोटली भेजी है चावल की। उस पोटली में से झपटा मारते हुए कृष्ण जब एक मुठ्ठी चावल खाते हैं तो एक लोक दे देते हैं सुदामा को, दूसरी मुठ्ठी खाते हैं तो दूसरा लोक दे देते हैं। प्रभु तो इतने भाव में हैं इतने प्रेम में हैं यह तो सब कुछ लुटाते जा रहे हैं। तो ऐसा सोचते हुए रुक्मणि हाथ पकड़ लेती हैं और कहती हैं कि सब अकेले ही खाएंगे हमें नहीं देंगे आप, हम भी तो आपकी पटरानी हैं हमें भी दीजिये। और वो तीसरी मुठ्ठी रुक्मणि ले लेती हैं। तो कहानी का जो तात्पर्य है वो यह है कि यह जो भौतिक संसार में वस्तुएं हैं इनकी एक अवधी है। इनकी एक सीमित अवधी है कि इतने समय तक यह संतुष्टि दे सकती हैं। लेकिन इसके भी पार जो परमात्मा का वास्तविक स्वरुप है जहाँ पर दिव्यता है, उस दिव्य संसार में कुछ ऐसा है जो सभी सांसारिक वस्तुओं से परे है और वो है – असीम बहुलता, असीम प्रचुरता। खाली भौतिक वस्तुओं की ही प्रचुरता नहीं अपितु कुछ ऐसा जो कभी क्षीण नहीं होता और वो है हमारा सत्य स्वरुप, दिव्य अनंत स्वरुप। तो जो मनुष्य इस देह में रहते हुए उस परम सत्ता को प्राप्त हो जाता है वो देखने में चाहे खाली हो और भीतर से भी ख़ाली दिखे, की इसकी जेब में कुछ भी नहीं है यह तो फ़क़ीर है। लेकिन वास्तव में जो तीनों लोकों की सत्ता है उसे उसका आधिपत्य प्राप्त हो जाता है। यह जो कलिकाल है, इसमें जो चीज़ समझने योग्य है वो यह है कि जो आँखों से चीज़ें हमें दिखती हैं, हमें इनसे ऊपर उठ जाना है। यदि हम इनसे ऊपर उठ जाते हैं तो हमें वो तो मिलता ही है जो संसार में है अपितु जो इन आँखों से इस भौतिक संसार में जो दिखाई नहीं देता वो भी मिलता है। वहां पर अनेकानेक ऐसी वस्तुएं हैं जिनके साथ यदि हम एकाकार कर लें तो यह जो आंतरिक तृप्ति है, यह जो आंतरिक आनंद है, इससे हमारा प्रथम परिचय होगा।
इस अक्षय तृतीया पर हमारा जो अक्षय पात्र है, वो कभी भी किसी भी प्रकार से ख़ाली न रहे। वो पूर्ण रहे। चाहें देखने में खाली लगे, जो देखने में ख़ाली लगता है वहीँ पर सब कुछ होता है। जैसे कि ब्रह्माण्ड है। यह शून्य है किन्तु शून्य में भी पूर्ण है। इसका तात्पर्य यह है कि जो पूर्ण है वो शून्य है। शून्य वो ही हो सकता है जो पूर्ण है। क्यूंकि अनंत का कोई अंक नहीं है। कोई ऐसा अंक नहीं है जो अनंत को परिभाषित कर सके। वह अंकों से परे है। और हम भी अनंत हैं क्यूंकि हम अनंत का ही एक हिस्सा हैं। और यदि हम उस अनंत का हिस्सा हैं तो हम भी अनंत हैं। सीधी सी बात यह है कि हम स्वयं को पहचाने।
वो पल जिसमें हमें स्वयं की अनंतता का एहसास हो जाए उस पल में हम अनंत हो जाते हैं। वो क्षण अनंत परमानन्द का क्षण हो जाता है।