Article

करुणा एवं कृतज्ञता – आत्मबोध का प्रथम पड़ाव

ये अभूतपूर्व समय है – जिसमे सारा विश्व कोरोना जैसी महामारी से पीड़ित है। दुनिया के अधिकांश देशों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है – जीवन की हानी हो रही है, अर्थव्यवस्था खतरे में है, व्यापार बाधित हो गया है। हमारे घर और कार्यस्थल पर भी इसका विपरीत प्रभाव पड़ा है। 

खतरा वास्तविक है और हमें इसका सामना बड़े ही विचारशील, विवेकपूर्ण ढंग से सामूहिक प्रयास के साथ करना होगा। कठिन समय से बहार आने के लिए मानसिक और भावनात्मक दृढ़ता की आवश्यकता है। विश्व में पुनः शांति एवं स्वस्थता की स्थापना के लिए लोगों को सामूहिक प्रार्थना में एक एकत्रित होना चाहिए। यह सामूहिक कार्रवाई सभी के हित में है।  यह दिव्य लोगों के पूरे समुदाय को एक साथ लाने के लिए एक आंदोलन के रूप में बन रही है। जब कई दिव्य लोग एक साथ बैठते हैं और सामूहिक रूप से प्रार्थना करते हैं, तो यह बहुत ताकतवर, सकारात्मकता और आरोग्य ऊर्जा की वृद्धि  करता है।

और इस कोविड के समय में उपचार बहुत महत्वपूर्ण है। विश्व आरोग्य बहुत महत्वपूर्ण है। हम सभी विश्व को उस दिव्य प्रार्थना के माध्यम से स्वस्थ करने के लिए, यहां एकत्रित हुए हैं।   

जब हम उन लोगों के बारे में सोचते हैं जो इससे  पीड़ित हैं तो हमारे ह्रदय में करुणा उत्पन्न होती है।  और करुणा का बड़ा मूल्य है। दो चीजें हैं जो बहुत महत्वपूर्ण हैं जिनकी हम आज चर्चा करेंगे। पहले करुणा है। दूसरा कृतज्ञता है।  इसका बड़ा मूल्य है। जो पीड़ित हैं और दर्द में हैं, हमें उनके लिए प्रार्थना करनी चाहिए। और प्रार्थना करते समय हमें कृतज्ञ होना चाहिए क्योंकि हम उनके लिए प्रार्थना करने की स्थिति में हैं।

 जब दुख आता है, जब कष्ट का सामना करना पड़ता है  तब स्वयं का अस्तित्व सो जाता है, उसकी चेतना कम हो जाती है। उस समय व्यक्ति अज्ञानी हो जाता है क्योंकि वह उस दर्द,  उस दुःख में पूरी तरह डूबा हुआ होता है। इसलिए उस समय वह सकारात्मक उपचार, प्रार्थना या ऐसा कुछ भी नहीं कर सकता, जिससे उस व्यक्ति की चेतना का उत्थान हो सके। इसीलिए जब कोई व्यक्ति खुश और प्रफुल्लित होता है, तो उसे कुछ ऐसा करना चाहिए ताकि वह चीज संस्कार बन जाए। कबीर द्वारा एक सुंदर कहावत है, 

“सुख में सिमरन सब करें, दूख में करे न कोय, जो सुख में सिमरन करे दुःख कहे को होए।”

जब आप लगातार दर्द और दुख में भगवान के बारे में सोचते हैं, तो इसका कोई लाभ नहीं है। एक वास्तविक प्रार्थना वह है जो आपके अंतर्मन में हो रही है और उस प्रार्थना को २४ घंटे दोहराया जा रहा है।

जब हम दूसरों के लिए प्रार्थना करना शुरू करते हैं, तो हमें स्वयं के लिए प्रार्थना करने की आवश्यकता नहीं है।  और यदि इस समय आपकी साँसे चल रहीं हैं, आप अच्छा भोजन खा पा रहे हैं और यदि आप सब प्रकार से – भौतिक, मानसिक स्थिति में खुश हैं तो आपको ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए।  और नहीं तो कम से कम जो चीज़ें हैं आपके पास उनका तो धन्यवाद अवश्य करना चाहिए।  लेकिन मनुष्य का स्वभाव ऐसा है की उसके पास जो नहीं है, वो उसका चिंतन करता रहता है।  यदि किसी के पास धन नहीं है, तो वो सबको यह बताता है कि इस समय जो मेरी परिस्थितियां हैं उन्होंने ऐसा मुझे जकड़ा हुआ है की मेरे पास धन नहीं है।  यदि किसी व्यक्ति का स्वास्थय नहीं है तो वो उसी में डूबा है चिंतन करते करते।  यदि उसका स्वास्थय अच्छा भी होना होगा तो वो अच्छा ना होपायेगा।  यदि उसको कोई दुःख संताप, कोई पीड़ा मन में है , तो वो उसका मनन करता रहता है।  लेकिन उसको बार बार मनन करने से उसके दुःख को कभी कम नहीं कर सकता।  क्यूंकि यह प्रकृति का स्वभाव भी है की जिस चीज़ का अधिक मनन, चिंतन, स्मरण रहेगा, उस चीज़ की बढ़ोतरी होती रहेगी।  उस चीज़ की प्रगति होती रहेगी।  उस चीज़ की उन्नति होती रहेगी।  

यदि जीवन में शिकायतें रहेंगी किसी के प्रति घृणा का भाव रहेगा तो हम उसी के बीज मिट्टी में बोते रहेंगे।  लेकिन जब हमारे जीवन में कृतज्ञता का भाव जागेगा, प्रेम का भाव रहेगा, तब हमारे जीवन में धन्यवाद के जो फूल हम मिट्टी में डालेंगे तो उसका जो पौधा उगेगा, वो पौधा भी धन्यवाद होगा।  इसलिए हमेशा जीवन में यदि इतना सा भी आपके साथ अच्छा घटित हुआ है तो उसको सराहना सीखिए, उसको स्वीकारना सीखिए।  एक जो मूल मंत्र है जो इस समय बड़ा लाभकारी है , वो है सकारात्मक चिंतन।  और खाली सकारात्मक सोचने से ही काम नहीं चलता। किसी नें हमें बताया की सकारात्मक सोचो तो हम बहुत कुछ पढ़ने लगते हैं, आँख बंद करके मन्त्रोच्चारण करने लगते हैं।  बहुत कुछ दोहराने लगते हैं।  लेकिन मुँह से बोलना और उस चीज़ में जीना, इन दोनों में  ज़मीन आसमान का फ़र्क है।  क्यूंकि जो हम मुँह से बोलते हैं उस चेतना का उद्देश्य बाह्यमुखी है और जब हम उसका  स्वतः चिंतन करते हैं, मनन करते हैं, अंदर से जब हम उसको जीते हैं, तब उसका  जो उद्देश्य है वो बाह्यमुखी नहीं वो अंतर्मुखी है।  और सब आपके अंदर ही है।  यदि आप अपने अंदर कुछ बदलाव लाना चाहते हैं, अपने अंदर कोई परिवर्तन लाना चाहते हैं याकी स्वयं को उन्नत करना चाहते हैं तो उसका रास्ता भी आपके अंदर से ही होकर गुज़रता है।  

इसलिए जो नकारात्मक परिस्थितियों में भी सकारात्मक सोच पाए तो वही है जीवन की सबसे बड़ी औषधि।  

बहुत बार ऐसा होता है की आप किसी समस्या से, किसी गंभीर रोग का सामना कर

रहे होतें हैं  और बार बार दवा लेने पर भी वो ज्यों  का त्यों रहता है क्यूंकि आप जो दवा ले रहे हैं, वो आप बाहर से ले रहें है लेकिन जो आपकी दिनचर्या, आपके सोचने का ढंग है, जो आपका व्यवहार है, जो आपका चित्त है,  वो उसी स्तर का है जो आपके शरीर  में एक रोग बनाता है।  क्यूंकि कोई न कोई परिस्थतियाँ रहीं होंगी जिन्होंने आपके भीतर वो रोग उत्पन्न किया।  चाहे भौतिक रोग हो, चाहे मानसिक रोग या भावनात्मक रोग हो, सकारात्मक सोच, स्पष्ट सोच, स्पष्टता की ओर ले जाती है। नकारात्मक सोच, जो अपनी दुनिया में है, वह भ्रम पैदा करता है।

और इस समय हमें स्वयं को समझना बहुत ज़रूरी है।  तो इसलिए जो हमने प्रार्थना का आयोजन किया है कि एक साथ बैठ कर हम सब प्रार्थना में सम्मिलित हों तो उसका मुख्य उद्देश्य ये ही है कि हम सब के अंतर्मन से ऐसी प्रेम की तरंगे निकले, ऐसी शान्ति की तरंगे निकलें  जो समस्त संसार में फैलें और सभी को स्पर्श करें।  ये चेतना का स्वभाव है की जब ऐसी तरंगे हमारे ह्रदय से निकलती हैं तो हमारे अंदर एक करुणा का भाव जागृत होता है।  एक दया का भाव जागृत होता है।  

उसका हमारे जीवन में बड़ा ही महत्त्वपूर्ण प्रभाव है।  

क्यूंकि यह जो झुकने की कला है यह बड़ी गहरी कला है।  तुम रास्ते से गुज़रते हो और देखते हो कि एक फलदार वृक्ष नीचे की ओर झुका हुआ है और वो झुकने के साथ साथ सभी को आमंत्रित करता है कि आकर मेरी डाल से कुछ फल ले लो कुछ छाओं ले लो।  उस झुकने के साथ उसके चारों ओर एक स्वागत का आभा मंडल दिखता है। जब हम उस झुकने की कला को देखते हैं, क्यूंकि जीवन में जब हम जागते हैं तो राह चलते जो पेड़ पौधे हैं, पशु पक्षी हैं, जो आकाश और तितलियाँ हैं, जो भँवरे हैं, उन सबसे हमें कोई न कोई सन्देश मिलता है।  और जो जागा हुआ मनुष्य होता है, वो उन सभी से कुछ सीखने की कोशिश करता है  जो उसके जीवन में प्रकृति ने एक प्रसाद के रूप में दी है।  जब हम देखते हैं लताओं को, वृक्षों को झुकते हुए, तो एक सन्देश उससे प्रकट होता है की मनुष्य को झुकना चाहिए और झुकना हमारी स्वाभाविक मांग है और यह झुकने की एक कला है।  जिसने झुकने की कला सीख ली, उसने सब कुछ सीख लिया।  यह झुकने की कला है जहाँ से आत्म बोध की मंजिल का प्रथम पड़ाव प्रारम्भ होता है।  क्यूंकि जब हम झुकते हैं, तो उस झुकने में हमारा मन, हमारा अहंकार, हमारा लोभ और मोह , हमारा काम और नाना प्रकार के जो विकार हैं हमारे भीतर, वो सभी तिरोहित हो जाते हैं।  

जीवन में जहाँ भी मौका मिले सदैव झुकना, जहाँ भी मौका मिले वहां पर स्वयं को अर्पित कर देना।  और जब हम झुकते हैं तो किसी दुसरे के लिए नहीं झुकते, स्वयं के लिए ही झुकते हैं।  क्यूंकि जैसे ही हम झुके तो उस झुकने की कला के साथ आप देखेंगे की जो हमारा अंतर्मन है उसमें कुछ कुछ होने लगता है।  और जब कुछ होने लगता है तो वहां पर हमारा जो अहंकार है  उसको पोषण नहीं मिलता।  वो वहीँ पर निरस्त होकर गिर पड़ता है।  

तुमने राह चलते किसी को देखा होगा जो बहुत दिनों से भूखा है, लोग उसे दुत्कारते हैं , भोजन नहीं देते , और जैसे ही कोई उसे भोजन देता है तो उसके चेहरे पर  एक तेज़ आ जाता है, एक आनंद   आ जाता है, एक ख़ुशी आ जाती है, क्यूंकि उसकी भूंख मिट गयी।  अहंकार भी भोजन मांगता है।  जब हम दुसरे से यह उपेक्षा करने लगते हैं, की यह हमें प्रणाम करे, हमारा स्वागत करे, यह हमारे आगे नतमस्तक हो , उससे हमारे अहंकार को बल मिलता है, हमारा अहंकार पोषित होता है।  और जब बार बार उस अहंकार को बल मिलता है तो मनुष्य अकड़ा हुआ हो जाता है, और उसकी अकड़ इस प्रकार होती है जैसे कि एक सूखा पेड़ पतझड़ में बिलकुल निर्वस्त्र होकर अपने आप में ही अकड़ा हुआ खड़ा है और दूसरी ओर एक फलदार वृक्ष को देखें तो वो झुका हुआ है क्यूंकि उसमें देने का भाव है।  

देने का भाव मनुष्य को जगाता है। देने का भाव मनुष्य में करुणा पैदा करता है।  देने का भाव झुकना सिखाता है।  मांगने का भाव मनुष्य को अकड़ा हुआ बनाता है , इसलिए मांग अस्वाभाविक है और झुकना स्वाभाविक है।  क्यूंकि झुकना प्रकृति के साथ मिलन है और अकड़ना प्रकृति के साथ विलग होना जैसा है।  और जब मनुष्य झुकने लगता है तो उसके भीतर एक कृतज्ञता का भाव आ जाता है।  

तुमने कभी देखा होगा की तुम मंदिर में गए और जाते ही कभी कोई ऐसा क्षण आया हो कि पत्थर की मूर्ति को देखते देखते एक ऐसा मन में भाव प्रकट हुआ हो की वहां झुकने का मन किया हो, या देखा हो किसी बुद्ध पुरुष के पास जिसने उस परम सत्य को स्वयं के भीतर स्थापित किया हो उसके पास बैठ कर या उसके पास जाकर एक मन में ऐसा भाव आया हो जहाँ पर स्वयं को उसके चरणों में अर्पित करने का मन किया हो।  या कभी प्रकृति की गोद में, पहाड़ों में, नदियों पर, सरोवरों पर , कभी कोई मन में ऐसा भाव उत्पन्न हुआ हो जहाँ हमने अपने मस्तक को प्रकृति की गोद में रख दिया हो।  क्यूंकि जब हम एक ऐसी आभा में जाते हैं, जहाँ उस प्रकृति की जो चरम शक्ति है, जो चरम आनंद है , जहाँ चारों ओर वातावरण में प्रेम ही प्रेम फैला हुआ है, वहां मनुष्य का अहंकार गिरने लगता है।  और जब अहंकार गिरने लगता है, तब मनुष्य नतमस्तक होने लगता है।  और नतमस्तक होते ही करुणा का बीज उसके हृदय में उत्पन्न हो जाता है।  

और वहां करुणा कभी अकेले नहीं आती, करुणा धन्यवाद के भाव को लेकर आती है।  जैसे ही हमनें धन्यवाद किया, हमनें अपनी चेतना का विकास कर लिया।  क्यूंकि वही अंततः परम ज्ञान है, वही अंततः परम सत्य है, वही अंततः सर्वज्ञ है। इसलिए यह जो हम प्रार्थना करते हैं समस्त विश्व के लिए, उसका उद्देश्य यही है की संसार तो  शांति और प्रेम का अनुभव करे ही, परन्तु यह जो चेतना है जहाँ से शांति और प्रेम बहते हैं ,उसका भी कल्याण हो।  इसलिए जब हम देते हैं तो उस देने में भी स्वयं का ही भला है।  उस देने में भी स्वयं का ही उत्थान है। ऐसा देना जहाँ स्वयं का भी कल्याण हो और समस्त संसार का भी कल्याण हो, वेद कहते हैं कि ऐसा देना बहुत ही सुन्दर और लाभकारी है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *