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संत कबीर का सन्देश  – बन खोजी – भाव प्रधान

बहुत हर्ष और आनंद है कि आप सभी ध्यान साधना के लिए एकत्रित हुए हैं। आज पूर्णमासी के अलावा भी बहुत ही सुन्दर अवसर और शुभ दिवस है। ज्योतिष के विचार से देखें तो आज सूर्य ग्रहण है।

आज सबसे खूबसूरत बात यह है की आज विश्व वातावरण दिवस भी है जो कि प्रति वर्ष ५ जून को मनाया जाता है। यह हमारी जिम्मेदारी है की हम अपने वातावरण को स्वच्छ रखें और एक ऐसा परिवेश दें की हमारे आस पास का वातावरण एक पुष्प, एक सुगंध की भाँती महकने लगे। वातावरण में इन दिनों जो भी एक आपाधापी है, लोग इसे समस्या कह रहें हैं किन्तु मैं इसे एक अवसर कहूंगा। क्यूंकि जो चल रहा है इसको मैं मंथन कहूंगा।

जब समुद्र मंथन की प्रक्रिया आरम्भ हुई थी तो देवता और असुर सभी एक साथ उसमें उपस्थित हुए थे। तब उसमें अनेक प्रकार के हलाहल विष, और अनेकानेक नकारात्मक प्रकार की ऊर्जाओं का आवागमन हुआ था जो कि इस संसार के लिए अनुकूल नहीं थी और समुद्र मंथन की मात्र चाह – अमृत पाने की अभिलाषा थी।

आज जो विश्व में यह प्रक्रिया चल रही है जो कोरोना वायरस के रूप में हमारे समक्ष है उसका मात्र उद्देश्य यह है की अंततः जो अमृत है उसका उदय हो। जो तमसो माँ ज्योतिर्गमय और उसके पश्चात् जो अमृतस्य का आनंद है वो अंत में ही है। मृत्योर्मा अमृतंगमय – उसका आनंद अंत में ही है। अतः जो यह प्रक्रिया चल रही है अमृत पाने कि बहुत भयानक लगती है क्यूंकि रोज़ अनेक लोगों की दर्दनाक मृत्यु होती दिख रही है। जो स्थिति बनी हुई है उसमें एक भय, एक चिंता है जो महामारी के रूप में हमारे भीतर प्रवेश कर चुकी है, एक कौतुहल तो करती है हमारे मन में। लेकिन अंततः हमें इसकी वास्तविकता का पता चलता है कि यह जो भी प्रकृति की इच्छा से हो रहा है इसमें हमारा ही लाभ है, हमारी ही भलाई है। सही मायने में प्रकृति का, ईश्वर का एक सन्देश भी है इसमें की मैनें जो तुम्हे सृष्टि में भेजा है वह उसका भोग करने के लिए, उसको खूबसूरत बनाने के लिए भेजा है। और जो भूल से व्यक्ति इसका मालिक बन बैठा तो यह सन्देश है परमात्मा का की तुम यहाँ केवल अतिथि हो सृष्टि में, तुम मालिक नहीं हो यहाँ के।

तो आज हम इस विश्व वातावरण दिवस पर एक प्रतिज्ञा लें कि न केवल अपने पर्यावरण को स्वच्छ रखें अपितु जो हमारे विचार हैं उनके माध्यम से भी प्रकृति के वातावरण को सुन्दर, प्रफुल्लित एवं आनंदित बनायें।

इसके साथ साथ आज कबीर जयंती भी है। यह शायद बहुत काम लोग जानते हैं कि कबीर एक बहुत खूबसूरत इंसान थे। देह से नहीं किन्तु अंतरात्मा से। क्यूंकि इंसान सुंदरता का आंकलन देह से करता है। लेकिन जो भीतर की सुंदरता होती है, उसके चित्त से है। एक जुलाहा जो कपड़े बुनता है वहां से इर्दगिर्द कबीर का जीवन घूमता है। अपने जीवन में इस प्रकार का दर्पण प्रस्तुत किया वो बहुत ही अलौकिक है। कबीर के जीवन में ऐसे कई पल आये जब लोगों ने कबीर की बहुत निंदा करनी शुरू करी, लोग उनके विरुद्ध हुए। और वास्तविकता में जब किसी की निंदा होने लगे, जब किसी के बारे में लोग अपशब्द बोलने लगे तो इसका मतलब यह है कि संसार को कोई ठीक करने वाला व्यक्ति आ गया है। सौ में से निन्यानवे प्रतिशत लोग ऐसे होते हैं जो कबीर जैसे संत को नहीं समझ पाए। शायद ही १ या २ प्रतिशत लोग कबीर जैसे संत को समझने में सक्षम हैं। यह वह संत हैं जो ईश्वर के सबसे निकट हैं। और ईश्वर के बारे में की जाने वाली ढोंग की बातों से कोसों दूर हैं। संत कबीर का एक सुन्दर दोहा है – “पत्थर पूजे हरी मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़” यह अपने आप में एक बहुत ही क्रांतिकारी बात है। कहते हैं की अगर पत्थर पूजने से हरी के दर्शन होते हैं तो मैं पत्थर क्यों मैं तो उस पहाड़ को पूज लूँ। की मुझे वो पूरा का पूरा ही मिल जाए।
लेकिन पंडितों ने, और बहुत से गुरुओं ने गलत ढंग से लिया और इसलिए अनेक जगहों पर उनकी निंदा हुई। शायद यही कारण है कि कबीर के अनुयायी नहीं हैं जितने बाकि धर्म गुरुओं के हैं। ऐसे क्रांतिकारी संत को समझना बहुत बड़ी बात है। मैं उनके बारे में एक किस्सा आपके सामने प्रस्तुत करना चाहूंगा।

सुबह से ही कबीर के घर हरी भजन नाम का सत्संग चलता रहता था , ब्रह्म चर्चा और अनेक प्रकार के प्रश्न लोग उनके सामने रखते रहते थे। हालांकि वो प्रश्नों के उत्तर नहीं देते थे, किन्तु लोग जो प्रश्न उनके सामने रखते थे उसका इस प्रकार से उत्तर देते थे की सामने वाले के भीतर उतर जाये। उनके पास विद्या नहीं थी क्यूंकि उन्होंने कभी शिक्षा नहीं ग्रहण की किन्तु जो ब्रह्म को जानता है वो ही सबसे बड़ा शिक्षित व्यक्ति है। जिसने ऐसी शिक्षा ग्रहण की हो की वो ब्रह्म चेतना से एकाकार करले, उससे बड़ा शिक्षित व्यक्ति कौन हो सकता है। तो कबीर के घर पर लोगों का एक तांता लगा ही रहता था। और जो भी उनके घर आते वो कहते की भोजन कर के जाओ। तो उनकी पत्नी और बेटा ‘कमाल’ हैरान रह जाते की आप सभी को भोजन पर आमंत्रित कर देते हैं। हम कहाँ से लाएं। और अब यह हाल है कि हम स्वयं घर का खर्चा और राशन उधार पर लाते हैं। तो हम उधार लाएं क्या? अब तो उधार भी मिलना बंद हो गया है। तो कबीर कहते हैं कि मुझे तो याद ही नहीं रहता कि हमारे घर में भोजन है ही नहीं। क्यूंकि जो मेरे पास आता है मैं तो उसके प्रेम में इतना मोहित हो जाता हूँ की हृदय से मेरे निकल जाता है कि आये हो तो भोजन कर के जाओ।
और जो भी है वो ग्रहण कर के जाओ। तो ऐसा सुनकर उनका बेटा कमाल कहता है कि आप भी बहुत अजीब बात करते हैं। अब यह नौबत आ गयी है हमारे घर में तो अब क्या हम चोरी करें? उसने तो यूँ ही व्यंग में कहा था पर कबीर बोले, ‘हाँ हाँ चोरी करो, ये बात तुम ठीक कहते हो। हमें चोरी करनी चाहिए। तो उनके बेटे ने फिर व्यंग में कहा तो मैं जाऊं चोरी करने? तो कबीर कहते हैं हाँ ज़रूर जाओ। हालाँकि बेटे ने व्यंग में ही कहा था लेकिन यदि कबीर जैसा व्यक्ति कहे की हाँ जाओ चोरी करने तो यह बहुत बड़ी बात है। ऐसा सुनते ही उनका बेटा भौंचक्का रह गया की मेरे पिता कबीर और ये कैसी बात करते हैं। तो उसने पूंछा कब जाऊं। कबीर ने कहा इसमें पूंछना क्या है, आज रात ही चले जाओ। तो उनका बेटा कहता है की मैं अकेला जाऊं? आप भी चलिए मेरे साथ। तो कबीर कहते हैं ठीक है मैं भी चलता हूँ तुम्हारे साथ। समझने वाली बात है। जब कबीर उसके साथ चोरी करने निकलते हैं तो कोई भौतिक तल पे देखेगा तो कहेगा यह चोरी करने निकल रहे हैं। जब कबीर निकलते हैं और साहूकार के घर पहुँचते हैं तब भी उनके बेटे को यकीन नहीं आ रहा की मेरे पिता कबीर मुझे चोरी करने के लिए कैसे कह सकते हैं। तो वो पुनः पूंछता है अपने पिता से की तो मैं अंदर प्रवेश करूँ, तो कबीर कहते हैं हाँ ज़रूर करो। और गेहूं की बोरी घसीट कर जैसे ही द्वार पर लाता है और पूंछता है की की बोरी ले आया हूँ। अब चलें ? तो कबीर कहते हैं की अभी रुको जाकर घर के मालिक को बता दो की आपके घर से हम चोरी करके गेहूं की बोरी ले जा रहें हैं। अब तो वो देख कर भौंचक्का रह जाता है और कहता है की आप ये किस प्रकार की बात कर रहें हैं ? मुझे समझ नहीं आ रहा है। तो कबीर कहते हैं अपने बेटे कमाल को की तुम कह रहे हो की चोरी, किस बात की चोरी? और किससे चोरी? मुझे तो यहाँ कोई दूसरा दिखाई ही नहीं देता। और चोरी तो वहां होती है जहाँ कोई दूसरा दिखाई देता है। जो श्वांस मेरे भीतर चल रही है वो ही उसके भीतर भी चल रही है। यह सब एक ही तो जगत है। और जिस कार्य को करने से हमें उसको छुपाना पड़े चोरी तो वहां होती है। और अगर तुम इनको नहीं बता सकते की हम तुम्हारे घर से बोरी चोरी कर के ले जा रहें हैं तो इसको ठीक वापस रख दो।

फिर हम अपने साथ इसको नहीं ले जा सकते। क्यूंकि जिस कार्य को करने के बाद उसको छुपाना पड़े वहां चोरी हुई सही मायने में। अब इसको भौतिक स्तर पर समझें तो यदि कोई साधारण मनुष्य इस कार्य को करेगा तो वो चोरी कहलायेगा। लेकिन जिस चेतना पर कबीर जैसा व्यक्ति है वो है ब्रह्म चेतना। जहाँ पर प्रकृति एक समग्रता में है और जहाँ समग्रता है वहां कैसी चोरी ? वहां तो कोई दूसरा है ही नहीं। यह इस प्रकार है की जैसे कृष्ण अर्जुन को कहते हैं की तू मार। और उसमें भी कोई हिंसा नहीं नज़र आती। कोई बाहरी तल से देखेगा तो उसे लगेगा की कृष्ण अर्जुन को हिंसा करना सीखा रहे हैं। लेकिन वास्तविकता में वो हिंसा नहीं अपितु धर्म का पालन करना सीखा रहे हैं। वहां पर जो कृष्ण ने कहा है अर्जुन से वो बहुत समझने वाली बात है। कृष्ण कहते हैं की न कोई मरने वाला है, न कोई मारने वाला है यह जो कर रहा है वो भी मैं ही कर रहा हूँ और कभी कोई व्यक्ति नहीं मरता। यदि कृष्ण यह कहते की तू इन सब कौरवों को मार और तू स्वयं को बचा तो यहां पर हिंसा कहलाती। वो कह रहें हैं तू इन सब को मार। कोई भी मरे, कोई भी जिए उससे क्या फर्क पड़ता है ? वास्तविकता में ना तो कोई मरता है और न कोई पैदा होता है। वो तो हमेशा मौजूद रहता है। अब हिटलर ने जो हिंसा की वो हिंसा इसलिए दिखाई देती है क्यूंकि जब वो औरों को मार रहा है तो उसके अंदर एक भय है। वो अपने आप को बचा रहा है। और जहां पर दुसरे को मार कर स्वयं को बचाने का भाव मन में आ जाये, वहां पर हिंसा है। तो वास्तव में हिंसा कभी जीवन में घटित होती नहीं है। चोरी जीवन में कभी घटित होती नहीं है। एक समय आएगा की आप लोग भी नहीं रहेंगे और मैं भी नहीं रहूँगा। उस समय जो मेरा सामान है या जो आपका सामान है वो मौज़ूद रहेगा बस उसका स्थान बदल जायेगा। आज सामान यहाँ है वो कहीं और चला जायेगा। तो पूर्ण प्रकृति में देखें तो सामान की चोरी तो कभी होती जी नहीं है। वो तो सदैव मौज़ूद रहता है। चोरी वहां होती है जहाँ भाव में चोरी होती है। क्यूंकि अगर इसको प्राकृतिक स्थल पर देखें तो वहां पर कभी भी किसी प्रकार की हिंसा या चोरी होती ही नहीं है। तो सारा जो खेल है वो भाव का खेल है। इस प्रकार जो जीवन है ऐसी समग्रता और ऐसी गहराई का जो जीवन है वो कबीर का जीवन है। इसलिए मनुष्य की जो पूरी चेतना है उसका एक ही उद्देश्य है की उस परम से एकाकार, उस सत्य का बोध। ऐसा जीवन कबीर का है, और कबीर की जो चेतना है वो ही क्राइस्ट की भी चेतना है। दोनों की चेतना मैं कोई अंतर नहीं है। कबीर बहुत ही गरीब सम्प्रदाय में पैदा हुए और जीसस क्राइस्ट भी उस ही समाज से ताल्लुक रखते हैं जो बहुत पिछड़ा हुआ है। जो बहुत हीन दृष्टि से देखा जाता है। तो उनकी जो चेतना है वो बहुत हद तक मिलती जुलती है। कबीर के जन्म से पहले कभी ऐसा होता ही नहीं था की किसी गरीब व्यक्ति को जो हीन वर्ग से है कभी संत महात्माओं की बातें सुनने या बात करने का अवसर मिले। एक ऐसा षड़यंत्र था की उसके पहले सिर्फ राजा महाराजा और जो समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति थे वही लोग उस ब्रह्म चेतना के बारे में चर्चा करते थे।

कबीर का एक यह भी सन्देश है मानव जाती को की इंसान चाहें गरीब हो या किसी भी संप्रदाय से हो जो परमात्मा को पाने का अधिकार है, है वो सभी को है। कबीर ने अपने पूरे जीवन एक यही सन्देश दिया की जो वास्तविक जीवन है उसको जानो। और वो तभी जाना जा सकता है जब मनुष्य स्वयं में डुबकी लगाए। जब ख़ुद में गोता खाये। और जिसने चाह रखी है खोजने की वही सही मायने में खोजी है। कबीर सभी लोगों को खोजी बनाना चाहते हैं।

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